Kabir Das ke Dohe
Kabir Das ki Rachnaye
कबीर दास एक 15वीं शताब्दी के भारतीय संत एवं कवि थे जिन्होंने हिंदी में अनेक कविताएं, दोहे और भजन रचे थे जिनसे भक्ति आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी कुछ प्रसिद्ध रचनाएं “कबीर वाणी,” “साखी ग्रन्थ,” “बीजक,” और “अनुराग सागर” हैं।
यहाँ कुछ उनकी कविताओं के उदाहरण दिए गए हैं:
“दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सिमरन करे, तो दुख कहे को होय।”
अर्थ: हर कोई दुख में परमात्मा का स्मरण करता है, लेकिन सुख में कोई नहीं करता। जो लोग सुख में भी परमात्मा का सिमरन करते हैं, उन्हें कभी दुख नहीं होता।
“कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़े वन माही।
ऐसे गुरु को बल बाल जाए, मैं भी तो तेरे पास माही।”
अर्थ: जैसे कि मृग अपने शरीर में कस्तूरी ढूंढ़ता है, मैंने भी संसार में ज्ञान की खोज की थी। असली गुरु को पाकर मैं भी जहाँ मोक्ष पाता हूँ।
कबीर दास के 10 दोहे अर्थ सहित
“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥
“अर्थ: मैं बुराई को देखने के लिए निकला था, लेकिन कोई बुराई मुझे नहीं मिली। जो मनुष्य अपने अंदर की बुराई को खोजता है, वह कभी भी किसी से बुरा नहीं हो सकता।
“दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय॥”
अर्थ: हर कोई दुःख के समय में भगवान का नाम लेता है, लेकिन सुख के समय में कोई नहीं करता। जो व्यक्ति सुख के समय में भगवान का नाम लेता है, उसे कभी भी दुःख नहीं हो सकता।
“साधु ऐसा चाहिए, जैसा सोंपे रहित कोय।सोंपे से लागि लगे, और लागि रहे मोय॥”
अर्थ: साधु का चरित्र ऐसा होना चाहिए, जैसा दानी जो दान करता है और उसे कुछ नहीं चाहिए। जो कोई दान करता है, उसे दान करने से बढ़कर आनंद मिलता है।”
गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाँय।बलिहारी गुरु आपने,गोबिन्द दियो मिलाय॥”
अर्थ: गुरु और गोबिंद भगवान दोनों खड़े हैं, मैं किसके चरणों में जाऊं। मैं अपने गुरु को बलिदान करता हूं, क्योंकि उन्होंने मुझे गोबिंद भगवान से मिलाया।
“माला तो करी एक पासा, जेहि बिधि होय व्यापार।उस दिन तो मन भया बहुत, आज नहीं फिर दुहुँद अधिकार॥”
अर्थ: माला में सिर्फ एक मनका होना चाहिए, जैसे जो व्यापार के लिए होता है। उस दिन मेरा मन बहुत उत्साहित हुआ था, लेकिन आज मेरा अधिकार नहीं है उसे फिर से ढूंढने का।
“जो तुम तोड़ो पैंजन, मैं बहुरि टोड़।तूटि टूटि करता फिरै, मेरा गुण खरे कोय॥”
अर्थ: जो तुम मेरे पैंजन को तोड़ते हो, मैं बहुत सारे पैंजन तोड़ता हूं। तुम्हारा अधिक तोड़ना फिरता है, लेकिन मेरी गुणवत्ता कोई नहीं खत्म कर सकता।
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥”
अरथ: सभी लोग पुस्तकें पढ़ते रहे, पंडित तो भयभीत हो गए कि कोई उनसे ज्यादा ज्ञानी हो सकता है। लेकिन प्रेम के दो और अक्षर पढ़ने से, वह पढ़ने वाला भी पंडित बन जाता है।
“दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय।जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय॥”
अर्थ: सब लोग दुःख के समय में भगवान का स्मरण करते हैं, लेकिन सुख के समय में कोई नहीं करता। जो सुख के समय में भी भगवान का स्मरण करता है, उसे क्या दुःख हो सकता है?
“बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥”
अर्थ: अगर तुम बड़े हो गए हो तो क्या हुआ, जैसे खजूर का पेड़। उस पंथी के पास छाया नहीं है, तो फल बहुत दूर लगता है।
ये थे कुछ प्रसिद्ध कबीर दास के दोहे जिनमें वे समझाते हैं कि जीवन की सीख आसानी से मिल जाती है, बस हमें उसे समझने की नियत और श्रद्धा होनी चाहिए।
FAQ
Q: कबीर दास जी का जन्म कहां हुआ था?
Ans: कबीर दास जी का जन्म सन् 1398 ई. के आस-पास भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के काशी नगर में हुआ था। वे हिंदी साहित्य के महान कवि और संत थे जिन्होंने अपनी शानदार रचनाओं से लोगों के दिलों में जगह बना ली थी।
Q: कबीर दास जी का जन्म कब हुआ था?
Ans: कबीर दास जी का जन्म काशी के पास स्थित लहरतारा तालाब के पास स्थित महेश्वरी गली में उत्तर प्रदेश (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में 1398 ईसापूर्व (या 1440 ईस्वी) में हुआ था।
Q: कबीर दास के गुरु कौन थे?
Ans: कबीर दास जी के गुरु दो थे। पहले उनके गुरु रामानन्द थे, जो एक संत और रामनामी थे। बाद में, उनके गुरु रपट थे, जो एक संत और कबीर जी के समान भक्ति-मार्गी थे। इन दोनों संतों से कबीर जी ने धार्मिक ज्ञान और साधना की शिक्षा प्राप्त की।
Q: संत कबीर दास का मूल नाम क्या है?
Ans: संत कबीर दास का मूल नाम माना जाता है “कबीर”। वे अपने जीवनकाल में ऐसे ही पुकारे जाते थे। कबीर दास के नाम का उल्लेख उनकी रचनाओं में भी मिलता है, जहां वे खुद को “कबीर” नाम से पुकारते हैं।
Q: कबीर दास का जन्म कब हुआ था?
Ans: कबीर दास जी का जन्म काशी के पास स्थित लहरतारा तालाब के पास स्थित महेश्वरी गली में उत्तर प्रदेश (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में 1398 ईसापूर्व (या 1440 ईस्वी) में हुआ था।